मुझे खामोशी के शहर ले आयी रात की परछाईया अपनी पहचान भूलकर यहा शांती से बहती है हवा कहते है किसी राजा ने यहा किसी कवी को दी थी सजा कारण कुछ खास न था लिखना यही था उसका गुन्हा तबसे खामोश चलती, सहती और सिर्फ सुनती थी प्रजा राजा ने एक दिन बादलों को बरसने से बिजली को चमक ने से फुलों को खिलने से मना कर दिया हर एक आवाज को शांत कर दिया राजा का भय इतना गहरा था कागजपर लिखे बोल मै जुबान पर ला न सका उस कागज को फाडकर मैंने भी शांती का मुखौटा बना दिया उस मुखौटे को पढकर किसी ने क्रांती का नारा दिया उस आवाज का धुआ दुर दुर तक फैला जब आग लग गयी तो राजमहल जलकर खाक हो गया तब मैंने जाना काफी नही है सिर्फ लिखना जरुरी है बयान करना इश्क, मोहब्बत प्यार या हो किसी के खिलाफ लढना अच्छा हुआ ले आयी रात की परछाईया मुझे लिखने का असली मतलब समझ आ गया