क्रांती

उनकी सांसे हो रही है यतीम
और लोग कह रहे है मजाक है ये
उनकी आवाज हो रही है गुमशुदा
और लोग कह रहे है मजाक है ये
रुह जानती है लढना
धडकने समजते है खत्म होना
फिरभी तुटती जमुरियत के
वजिर-ए-आलम
हरा देते है उनको हर पल हर दम

इनके यहा रोने की गुनगुनाहट
जनाजा भेजती है खुले बाजार मे
और अब तो कफनभी महेंगा हुआ है जान से
गुंज रही है सिर्फ घायालों की पुकार
मुर्दाघर बन गया है हर एक मकान


तो फिर जान को तो जानाही है एक दिन
तो फिर क्रांती तो होगीही,
खुन तो बहेगाही,
गोली तो छुटेगीही
फिर चाहे निशाने पे हो
इनका सिना
या कलंकितों का जिना
मरना तो हैही
लेकिन अब आसुओं के बिना

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