हम इंसान बन गये..

कुछ जमिन की पीठ पर
जल गये
कुछ जमिन के पेट मे
दब गये

कमजोर थे मकान जो
टुट गये
कमजोर थे जिस्म ओ  
बेघर हो गये

लहु लावा की तरहा
बहता रह गया
आसमान काला था
कालाही रह गया


मरी हुई मा का पल्लू पकडे
बच्चा रो रहा था
गली गली रंगीन झंडा
लहरा रहा था

दुऑ से भी
बढता धुऑ गहरा था
किसी की मौत
किसी की अमन का जरिया था

कुछ मरते रह गये
कुछ मारते रह गये
अमन की राह पर
सब ऐसेही चलते रह गय्रे

कुछही दिनो मे
मुझे नयी पहचान मिल गयी
मेरे दोस्त पिटर और मेरे बीच
नयी दीवार बन गयी

धीरे धीरे करिम अब्बू के कंदिल
दिवाली मे झगमगाना भुल गये
अब रामूचाचा के लड्डूभी
रमजान मे स्वाद बिसर गये

जानवर थे हम सब,
अभी हम इंसान बन गये..

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