अर्ज

देख ये सृष्टी खिल गयी
इस सजल खुबसुरती के अक्स  से
फिर भी तू बेखबर…
यही एहसास है तेरा
इन्ह लब्जो के एहसास पे
शायद सुबह की पहली किरण
आशियाना ढुंढते हुये थम जाती
होगी तेरी सुरत पर
मै कोई आसमानी नही हु
जो आफ्ताब की निगरानी करता फिरू
मै  तो आशिक,
आदमखोर को भी सिकता हु
महोब्बत …



अब कल्ब का मलबा हुआ है
बादलों का पता नही
पर एक खयाल है  इन्ह प्यासी आखों मे
जिसके कारन ये आब-ए-तल्ख
रुख गया है
तेरी तस्वीर ने तो पुरा कालचक्र बदल दिया
कल तक आजाद था
अब बंदी बन गया
पर इस खुदगर्ज, पापी, बेशर्म, बुझदिल
दुनिया का उन्मुक्त होने से ज्यादा
तेरी तस्वीर का उन्मिष बंदी बनना चाहता हु ।


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