दिवार

हमे आशियाना चाहिये था..
तुने दिवार बनाई..
जब से ये दिवार बनी है
ना चांद उतरा है आसमान मे
ना सुरज
दिवार के उस तरफ है तु
और इस तरफ है बस अंधेरा
वक्त के साथ इतनी मजबुत हो रही है ये दिवार
की अब यादों को खामोशी की
और ख्वाबों को बंद आखों की
आदत हो रही है
इस हवा मे एक घृणा है
दिया जलाने जाता हु
और आग लग जाती है
दिवार ने भी ये कैसा बैर लिया है
मै लिखने जाता हु मोहब्बत
और मलबा गिर जाता है
सोचता हु गिरते मलबे के साथ गिर जाये ये दिवार भी
दिवार तो गिर जायेगी पर
तेरी नफरत का क्या?
बेहतर यही है की इस दिवार से ही मोहब्बत की जाये..
मोहब्बत से नफरत करने से अच्छा है नफरत से मोहब्बत की जाये..








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