क्या करे, अनपढ ओ
मेरी जुबान मराठी…
पर उसे नही आती …
मै लिखता हु मराठी
पर क्या करे
उसे समज मे नही आती
मुख्तलिफ लब्जों को मुनज्जम करता हु
बहोतही आसान तरिके से
फिर भी जुदाई है वही
अंधेरा है वही
लब्जों की रोशनी तो आती है लेकीन धुंध की चादर इतनी गहरी है
की ओ नही सुनती
क्या करे
मेरी जुबान मराठी…
पर उसे नही आती …
अब ये अंजुमन नीरस बनता जा रहा है
कुछ दिलकश है
तो सिर्फ ओ,
उसकी खुबसुरती, उसकी बाते
मेरी तहरीर तरस रही है
उसके जवाब के लिये
लेकीन बिच मै इतने सारे सन्देह है
की ओ नही पढती
क्या करे
मेरी जुबान मराठी…
पर उसे नही आती …
अब सिर्फ आखें ही है
जो कर सकती है
काबू उस बेशकिमती खुबसुरती को
पर क्या करे
ये चश्मा है
जो आंखो को भी सिखाता है
खामोशी
ये कांच के टुकडे
सिर्फ देते है दृष्टी विमल
पर निगल जाते है सारे भाव
क्या करे
मेरी जुबान मराठी…
पर उसे नही आती …
मै लिखता हु मराठी
पर क्या करे
उसे समज मे नही आती
पर उसे नही आती …
मै लिखता हु मराठी
पर क्या करे
उसे समज मे नही आती
बहोतही आसान तरिके से
फिर भी जुदाई है वही
अंधेरा है वही
लब्जों की रोशनी तो आती है लेकीन धुंध की चादर इतनी गहरी है
की ओ नही सुनती
क्या करे
मेरी जुबान मराठी…
पर उसे नही आती …
अब ये अंजुमन नीरस बनता जा रहा है
कुछ दिलकश है
तो सिर्फ ओ,
उसकी खुबसुरती, उसकी बाते
मेरी तहरीर तरस रही है
उसके जवाब के लिये
लेकीन बिच मै इतने सारे सन्देह है
की ओ नही पढती
क्या करे
मेरी जुबान मराठी…
पर उसे नही आती …
अब सिर्फ आखें ही है
जो कर सकती है
काबू उस बेशकिमती खुबसुरती को
पर क्या करे
ये चश्मा है
जो आंखो को भी सिखाता है
खामोशी
ये कांच के टुकडे
सिर्फ देते है दृष्टी विमल
पर निगल जाते है सारे भाव
क्या करे
मेरी जुबान मराठी…
पर उसे नही आती …
मै लिखता हु मराठी
पर क्या करे
उसे समज मे नही आती
टिप्पण्या
टिप्पणी पोस्ट करा