मौत

हा ओ सच है
मै ही मर गया था कल
किसीने दफनाया,
किसीने जलाया
मुंतजीर था
आखिर आ ही गयी ओ घडी
उसकी आखो मे और एक बार हसी खिल गयी ….

कहते है
ये सफर मुख्तसर होता है
पर ये रात है की
पिघल नही रही
अब लगता है
ऐसाही पडा रहूंगा समशान मे
सनातन काल तक
तन्हायी की तो आदत थी
लेकीन उसकी मोजुदगी है दर्दभरी
उस दर्द का क्या करू?
इस कफ़न मे क्या क्या छुपालू?
वक्त गद्दार है
और ये जिस्म तो उससे भी बडा



ओ अंधविश्वास है की
मै उसे भूल गया
अभीभी उसके गाने गा रहा हु
मौत के मेहफिल मे
पर काफिर है ये अंधेरा
जो सुना रहा है उसे कूच और ही
कर रहा हु अंधेरे को भी इख्तियार
पर मालूम है ओ नही करेगी इंतजार

ओ गांधारी सोच रही है
की ये अंधा आशिक फस गया
अरे आंख की पट्टी तो निकाल,
मैने तो तुजे देखते देखते
मौत की मांग मे सिंदूर भर दिया,
खुशी से






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