कुछ रास नही आया
तेरे रोशन चेहरे की रोशनी का ये लम्स
इतना सच्चा था की
चल बसा अफ्ताब की तरफ
पर चाँद बनने का
तेरे जमाल का ये खेल
कुछ रास नही आया
जब से ये रात हुई है
मै अपने ही मौत का जनाजा
ले के घूम रहा हू
पर जो पेशलफ्ज मे ही फसे
ओ तेरी कहाणी का कारनामा
कुछ रास नही आया
जिस फुल को छुआ था
तुने भी मैने भी
जिसके काटे चिपके थे
मेरे खुरदरे हातों को
उस फुल का ये हिसाब
कुछ रास नही आया
मरिजे ख्वाब से तुने ख्वाब चुराये
सुबह भी धुंधली हुई
उस सुबह सर्द हातों से
गले लगाकर तेरा उन्ही ख्वाबो को
मेरेपास ही गिरवी रखना
कुछ रास नही आया
बादलों के गिरते उन्ह बुंदों से
रोशनी का तीर सात रंग लेता है
पर इन्ह आसूओ से
तेरे नजर के तीर जाते है
तभी इस बेरंगी दाग का चमकना
कुछ रास नही आया
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