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जुलै, २०१६ पासूनच्या पोेस्ट दाखवत आहे

मॉ

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और एक सुबहा, रात की गोद मे खेलते खेलते रोशन हो गयी... उस रात का सागर की लहरों के साथ लोरी गाना सुबह को हवा के झुले पे झुला झुलाना अब आखिरकार बंद हो गया सुबहा रोशन जो हो गयी लोग कहते है कितनी हसीन है ये सुबह सारी बद्सुरती तो रात ने लेली ये रोशनी, रात का तेज है जो सुबह को दान मे मिला सच तो ये है की रात का मुखडा कोई देख ना सका मॉ की खुबसुरती दिखाये ऐसा आईना कोई ना बना सका सुबह का रात से दुर जाना कोई नयी बात नही मै भी दुर हु बहोत मेरी मॉ से फरक इतना है उन्ह दोनो मे है बस एक दिन का फासला और इस दुरी की नही है कोई इन्तेहा

अपना

जिसकी रोशनी मेरे सिने पे थी आखिरकार ओ तारा टूट गया चिराग ढुंढते ढुंढते इस आंधी मे किससे मेरा भी सीना लूट गया खाली गुलदान था इसी जगहा किसीने आ कर उसे भर दिया जिस खुशबू के लिये तरसा उसी खुशबू मे दम घुट गया अंधेरे की तलाश मे एक दिन छोडा था जुगनू ने यहा घर रात मिली उसे कही लेकीन खाली हात ओ घर लौट गया बरसात मे शजर की छॉव मे मिले थे हम दोनो के साये ये समा कुछ इस तरहा टुटा की अब आसमॉ भी रुठ गया वक्त मिले कभी तो आ जाना शायद मकान दिखेगा ‘अपना’ बची है ‘अपनी’ ऊँची इमारत यहा पर ‘अपना’ आशियाना मिट गया

हसी

हसी की शागिर्दी दिखाई दे ऐसी बात है ये चौदहवे दिन पर राज करे ऐसी रात है ये दो अल्फाजों की ये सरगोशियां है लेकिन घुंगट मे छुपे मोगरे के गंध सी शांत है ये कितनी की हमने हमारे जमिर से गुफ्तगु दिल टकराये किसि से ऐसा आघात है ये खुद की आंधीओं मे खुद का आशियाना टुटा ये आंधी हो जिसपर निसार ओ प्रांत है ये बातों की ये माशुका, उसके लबों का सफर हजारो मुसाफिर समाले इतनी प्रशांत है ये मेघदुत बने विवेक को कोई सुरत नही यहा ओस की बुंदे बिंदिया जिसकी ओ प्रात है ये