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2016 पासूनच्या पोेस्ट दाखवत आहे

दिवार

हमे आशियाना चाहिये था.. तुने दिवार बनाई.. जब से ये दिवार बनी है ना चांद उतरा है आसमान मे ना सुरज दिवार के उस तरफ है तु और इस तरफ है बस अंधेरा वक्त के साथ इतनी मजबुत हो रही है ये दिवार की अब यादों को खामोशी की और ख्वाबों को बंद आखों की आदत हो रही है इस हवा मे एक घृणा है दिया जलाने जाता हु और आग लग जाती है दिवार ने भी ये कैसा बैर लिया है मै लिखने जाता हु मोहब्बत और मलबा गिर जाता है सोचता हु गिरते मलबे के साथ गिर जाये ये दिवार भी दिवार तो गिर जायेगी पर तेरी नफरत का क्या? बेहतर यही है की इस दिवार से ही मोहब्बत की जाये.. मोहब्बत से नफरत करने से अच्छा है नफरत से मोहब्बत की जाये..

रात..

रात हो रही है दिया जल रहा है डर उस रात का नही.. डर इस बात का है की सुबह से पहले दिया न बुझ जाये धडकने तेज हो रही है बढते अंधेरे मे चार दिवारों मे बंद मै और मेरा साया गुफ्तगू करते करते थक गये अब देख रहा हु खिडकी के बाहर यहा एक शजर थी फुल खिला था कल.. आज क्यु मुरझा गयी? शायद फुल तोडा होगा किसीने दिल टुटने का गम दिवारों के अंदर भी है और बाहर भी हवा के लहरों का नशा आखोंपर चढ रहा है पलके अब मिट रही है दिया अभीभी जल रहा है चार दिवारों मे हर रात नयी कहानी जन्म लेती है मै पढता हु मेरा साया सुनता है जब तक दिया जल रहा है, मै कहानी पढाता रहता हु साया सुनता रहता है जब दिया बुजता है साया खो जाता है कही अंधेरे मे और मै सो जाता हु किसी कहाणी मे

बा. सी. मर्ढेकरांच्या जन्मदिनानिमित्त..

सकाळी सकाळी। उघडावे वृत्तपत्र, पहावे राशीचक्र। ‘श्रद्धेपोटी’॥ कालची ‘चपटी’। करावी ‘उलटी’, सुगंधी अत्तर। माळावा देही॥ घरातून आज। लवकर निघावे, नजर लावावी। तिच्या दारी॥ बाहेरूनच करावे। इशारे गुलाबी, तिच्या घरी म्हणे। कुत्री असती॥ इतक्यात यावा। गोजिरा कोणी, ध्यानी ना मनी। तिस मारावी मिठ्ठी॥ चुरचुर आवाज। यावा कानी, प्रेमाच्या काचा। फुटाव्या ह्रदयी॥ काळाची कृपा। काय सांगावी, व्हावा अंधार। सुर्याखाली॥ होता सायंकाळ। गाठावी गल्ली, पुन्हा तीच 'चपटी'। तीच 'उधारी'॥ आता नवा अंधार। रात्र कालची॥ करावी नशा जुनीच। ‘अंध:श्रद्धेपोटी’॥

एक क्लास

नींद नही आती आज कल आखो मे जो धुआ था आज बर्फिली धुप बन गया इतना प्यारा नगमा है की ये पलके भी मिटती नही आज कल ऐसा लगता है जजिरा मिल गया जहा जुगनु की रंगीन ‘रोशनी’ से ‘सृष्टी’ झुम जाती हो जहा हरियाली इतनी सजी हो की लगे ‘पूजा’-पाठ कर रही है दिगंत पर जहा ‘शुभांगी’सी हसीन शजर अपनी खुशबू को ‘मल्लिका’ के गंधसी गुजरते पलों मे मिला ती हो जहा चांद का जमाल भी ऐसा उतरता हो जमिन पर जैसे ‘अरुषी’ आती है सुरज से जहा ‘निशी’ के साथ बेखौफ हो रंजनीगंधा जो जिवित है ‘आयुशी’ की तरहा, बेहती है कस्तुरीसी जहा हो ओस की ‘मिहिका’, झरने की जीवीका जहा हो आशियाना ‘अनिकेत’ की शाश्वती से भरा जहा दवाग्नी भी ‘प्रार्थना’ करता हो मेघाओं के राजा ‘मेघन’ से जिसकी ‘आस्था’ ‘राघव’ के जिवनसी पवित्र है जहा सबको हो स्मरण खुद के ऐहसास का जिसे ‘सिमरन’ कहते है जहा हो ‘अभिरुची’ शांती की, ईच्छा ‘मनिष’ की, सुंदरता ‘प्रियांका’ की जहा हो ‘मेहेक’ खेतों मे खिले पिले सोने की, शहदसी मधुरता हो ‘मधुनिका’ की जहा हो तेज ‘आदित्य’ का, मन ‘मानसी’ का, सुर ‘सानिका’ का जहा हो 'कबीर'सा कोई संत जिसका ना हो कोई ईमान, जिसक

पानी

पानी, हा मेरे प्यारे दोस्तो वही पानी जिसे तेलुगू में नीरु, कन्नड में नीर, संस्कृत में वारी, उर्दू में आब तमिल में तनीं और हिंदी में पानी कहते जिसमे लाल मिलाये तो खून बनता है नमकीन मिलाये तो आसू बनता है जो आसमान में बनता है पहाडोसे गुजरते नदीओ से बेहता है जो आपके जिस्म में समाता है हा वही पानी जो आपकी मेरी मेहबुबा के बालो में छुप जाता हैं रोम रोम में खो जाता हैं वही पानी जिससे आग बुजाने पर भाप बनती है प्यास बुजाने पर धडकने बन जाती है ओ पानी आजकल बोतलो में आता हैं कुछ अलगसा है ये पांनी RO, VO, XO, JIO से purify हुआ आपके आसुओ से भी सस्ता अब्र के बुंदोसे भी स्वच पानी इस पानी का इक हिस्सा देगा आपके बच्चो को शिक्षा तो आओ खरीदो ये पानी high definition वाला पानी... आपके आसुओ से भी सस्ता अब्र के बुंदोसे भी स्वच पानी

मै और मेरी माशुका

मैने मेरी माशुका से कहा की - चेहरे की नुमाइंदगी करता ओस का बुलबुला बन जाऊ मै चेहरे की मासुमियत छुती बारिश  की  बुंद बन जाऊ पर मेरी माशुका इतनी नफरत करती है की उसने कहा- तू बन जा ओस का बुलबुला, मै सुबह की धूप बन जाऊ बारिश की बुंद बन जा, मै जलती आग बन जाऊ फिरभी प्यारभरे लब्जोसे  मैने कहा- पलकों को अपनी नर्म बाहो में समेटती शाम बन जाऊ मै इन आँखो की मेहेरबानी लेने रंगीन तितली बन जाऊ उसने फौरन कहा- बन जा तू शाम नर्म बाहो की, मैं थंडी रात बन जाऊ तितली बन जा तू रंगीन, मैं नरभक्षी फुल बन जाऊ मैं बेहाल, मैने कहा- बालों को अपने कंधोपर लहरता हवा का झोका बन जाऊ भौह की अदाओ को समाने मैं तेरा माथा बन जाऊ उसने अपने बालों को सवरते हुए कहा- तू बन जा हवा का झोका, मैं उसे चिरता पहाड बन जाऊ बन जा मेरा माथा, फिर मैं बदसुरत बन जाऊ थोडी उदासी से मैने कहा- तु पास होने का एहसास, तेरी तस्वीर बन जाऊ तु छुने की निशाणी, मै जमीन की मिट्टी बन जाऊ हसते हुए उसने जवाब दिया- तस्वीर बन जा तू, मैं अदृश्य, देहहीन बन जाऊ तू जमीन की मिट्टी बन जा, मैं पत्थर का तट बन जाऊ यकायक मैनेभी कहा- होली

मैं 'तू' बन जाऊ....

चेहरे की नुमाइंदगी करता ओस का बुलबुला बन जाऊ मै चेहरे की मासुमियत छुती बारिश  की  बुंद बन जाऊ पलकों को अपनी गर्म बाहो में समेटती शाम बन जाऊ मै इन आँखो की मेहेरबानी लेने रंगीन तितली बन जाऊ बालों को अपने कंधोपर लहरता हवा का झोका बन जाऊ भौह की अदाओ को समाने मैं तेरा माथा बन जाऊ तु पास होने का एहसास दिलाती तस्वीर बन जाऊ तु छुने की निशाणी, मै जमीन की मिट्टी बन जाऊ होली में तेरे गालो पर खिलता कोई रंग बन जाऊ मै तूने दिवाली में लगाया जलता दिया बन जाऊ तेरी आवाज को सुनेने मै सुमसान जंगल बन जाऊ तेरी धुंध में नाचणे मैं भी नाचती रागिणी बन जाऊ जहा तेरा आना जाना है उस गली का मैं पत्थर बन जाऊ तुजपर नजर रखे रात का चांद, दिन का सुरज बन जाऊ तू जब आये किनारे पे, तेरी ओर खिचती लहरे बन जाऊ तू भिग जाये बारिश में, में काले बादल बन जाऊ तू चले तो मैं चाल बन जाऊ तू रुके तो रुकावट बन जाऊ चीड जाये तो घुस्सा बन जाऊ तेरी हसी की मैं मुस्कान बन जाऊ तेरी जख्म का मैं मरहम बन जाऊ तेरे अश्कों का खारापन बन जाऊ तू है ओ जहाँ बन जाऊ और ना हो वहा मैं 'तू' बन जाऊ....

पिछले कुछ सात दिन

सात दिन का ये अंधेरा इतना गहरा था कि सदियों से सुरज छुपा हो बादलों के पिछे दिल पे धूल जमी थी तेरी आखों की रोशनी ने दिल फिर से साफ कर दिया तेरी आंखे ऐसी कि मानो कली ने घुंघट को हलकेसे ओढ लिया हो जब बंद होती है तो फुल पर खिले तितली कि तरहा मासूम   और खुलं जाये तो रंगो के खुशबूदार झरणे की तरहा शादाब जिसमे बह जाये कोई भी इन्ह बालो का आखो पर झुमना हवा के साथ लढना, खेलना हसना इन्ह अदाओ का कुछ हिस्सा सुबह ने दिगंत पर रखा है जहा आकाश भी नही जा सकता पिछले कुछ सात दिनो में सब रुक गया था  अब जिंदगी का एहसास हो रहा  है तेरा सामने होना दुरी के गमसे, मेरी तन्हाई के दर्दसे कहीं गुणा हसीन खूबसूरत है.. पर जाना है तुझे भी, मुझे भी वक्त की नजाकत पर चूप रहना ही ठीक होगा      

तुम इंसान बना दो

याद किया कई बार दिल ने दिल को टुटा तारा दिला दो तुम दिखाई दो कही यहा अब शिशे को ऐसी रोशनी ला दो तुम्हारा नशा इतना चढ गया दिन मे चांद ढुंढने लग गये वक्त सिधा चल रहा है अभी उसेभी थोडी शराब पिला दो नफरत भरी निगाहो से देखा फिरभी नफरत नही कर पाये बैर रखे जमिन भी मिट्टी से हमे नफरत की ऐसी दवा दो तुम छुओ पत्थर धडक जाये होश हमने खोया है कब से फुरसत मिले कभी तुमे तो हमेभी फिरसे इंसान बना दो सामने आना, फिर चले जाना इन्हसे भी सुकुन मिलता है अब कभी आओगे सामने तो सासो मे जरासा दर्द मिला दो

खामोशिया

वक्त खामोश है, इस रात से अलग होकर जिसने चांद की चाह में गगन का रूप लिया है उस दिल की तरहा, सदिओ पुरानी है ये चाहत और  सदिओ से चलती आ रही है ये अमावस  शांत हो गयी है अब दोनो की धडकने, बादल भी थम गये है कही, जिसपर हवा का आना-जाना था ओ चंचल लहरे भी रुक गयी,   आकाश में चमकती तितलियों ने भी अब पलके मिटा दी  दर्द की दर्दभरी दास्तान ले कर जी रहे वक्त से मैं क्या बोलूं? कैसे कहू, क्यू खामोश है तू भी? उसने भी सजाई है मेहफिले हजारो, उसने भी हर कब्र पर  है आसू बहाये  मेरी खामोशिया तो  उन्ह लब्जो की नाराजगी है जिने कोई सुनता नही, मेरी खामोशिया उन्ह आसुओ कि रुसवाई है  जिनको कोई देखता नही, तू भी नही     मैं तो कहा देखा है  वक्त के अश्को को,   वक्त के अल्फाज को सुनेने की कोशिश भी नही की कभी  शायद वक्त मायूस है मेरे से,  मेरी तरहा पर दोनो का साथ चलाना अनिवार्य है वक्त भी चल रहा है और मैं भी, अब तू भी चल दो कदम मेरे साथ..  तेरे साथ में खामोशिया खामोश हो जाती है   

थक गये

इस आंगण में दिया जलाते जलाते थक गये दो दिवारों की रखवाली करते करते थक गये बहरूपियों का मुखौटा लेने निकले थे घर से साफ आईने की सुरत देखते देखते थक गये बदतमीजी से भी शराब नही पी हमने कभी शराफत से तेरी ये दवा पिते पिते थक गये मुहावजा मांग रहे है ये कटे हुये फुल मुजसे उन्ह में हम खुनी रंग भरते भरते थक गये मंजिल नही बदली बस कब्र अलग है आज तेरे इश्क का कफन पहनते पहनते थक गये इसी जगहा पैदा हुआ था विवेक कल परसो यहा मोहोब्बत में तेरे मरते मरते थक गये 

मॉ

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और एक सुबहा, रात की गोद मे खेलते खेलते रोशन हो गयी... उस रात का सागर की लहरों के साथ लोरी गाना सुबह को हवा के झुले पे झुला झुलाना अब आखिरकार बंद हो गया सुबहा रोशन जो हो गयी लोग कहते है कितनी हसीन है ये सुबह सारी बद्सुरती तो रात ने लेली ये रोशनी, रात का तेज है जो सुबह को दान मे मिला सच तो ये है की रात का मुखडा कोई देख ना सका मॉ की खुबसुरती दिखाये ऐसा आईना कोई ना बना सका सुबह का रात से दुर जाना कोई नयी बात नही मै भी दुर हु बहोत मेरी मॉ से फरक इतना है उन्ह दोनो मे है बस एक दिन का फासला और इस दुरी की नही है कोई इन्तेहा

अपना

जिसकी रोशनी मेरे सिने पे थी आखिरकार ओ तारा टूट गया चिराग ढुंढते ढुंढते इस आंधी मे किससे मेरा भी सीना लूट गया खाली गुलदान था इसी जगहा किसीने आ कर उसे भर दिया जिस खुशबू के लिये तरसा उसी खुशबू मे दम घुट गया अंधेरे की तलाश मे एक दिन छोडा था जुगनू ने यहा घर रात मिली उसे कही लेकीन खाली हात ओ घर लौट गया बरसात मे शजर की छॉव मे मिले थे हम दोनो के साये ये समा कुछ इस तरहा टुटा की अब आसमॉ भी रुठ गया वक्त मिले कभी तो आ जाना शायद मकान दिखेगा ‘अपना’ बची है ‘अपनी’ ऊँची इमारत यहा पर ‘अपना’ आशियाना मिट गया

हसी

हसी की शागिर्दी दिखाई दे ऐसी बात है ये चौदहवे दिन पर राज करे ऐसी रात है ये दो अल्फाजों की ये सरगोशियां है लेकिन घुंगट मे छुपे मोगरे के गंध सी शांत है ये कितनी की हमने हमारे जमिर से गुफ्तगु दिल टकराये किसि से ऐसा आघात है ये खुद की आंधीओं मे खुद का आशियाना टुटा ये आंधी हो जिसपर निसार ओ प्रांत है ये बातों की ये माशुका, उसके लबों का सफर हजारो मुसाफिर समाले इतनी प्रशांत है ये मेघदुत बने विवेक को कोई सुरत नही यहा ओस की बुंदे बिंदिया जिसकी ओ प्रात है ये

काहीस असच

छेडून मंद जीव हा शब्दांनी घात केला  उरला फक्त एकांत झुला  जसा हलतो सागर खुला  देखण्या सुरांचा नाद हा  घोटून घोटून गायला  प्रतिश्वासांचा जणू हल्ला  श्वासांनी कसाबसा पचवला  आता झुलवता झुलवता  तुटलं आकाश पेटला वणवा  भग्नावस्थाचा हा राग   पेटत्या झाडांनो तुम्हीच मिटवा  ह्या तरल शांततेचा  हा असा सरळपणा  ह्या शांत थंडीतून  'तो' मुसळधार पाझरावा  पाझरलेल्या थंडीतून  शांत व्हावं सार  स्थिरावलेल्या झुल्यावर  निपचित पडाव गार वार  

कुछ रास नही आया

तेरे रोशन चेहरे की रोशनी का ये लम्स इतना सच्चा था की  चल बसा अफ्ताब की तरफ  पर चाँद बनने का  तेरे जमाल का ये खेल  कुछ रास नही आया  जब से ये रात हुई है  मै अपने ही मौत का जनाजा  ले के घूम रहा हू  पर जो पेशलफ्ज मे ही फसे  ओ तेरी कहाणी का कारनामा  कुछ रास नही आया  जिस फुल को छुआ था  तुने भी मैने भी  जिसके काटे चिपके थे  मेरे खुरदरे हातों को   उस फुल का ये हिसाब   कुछ रास नही आया  मरिजे ख्वाब से तुने ख्वाब चुराये  सुबह भी धुंधली हुई  उस सुबह सर्द हातों से  गले लगाकर तेरा उन्ही ख्वाबो को  मेरेपास ही गिरवी रखना  कुछ रास नही आया  बादलों के गिरते उन्ह बुंदों से  रोशनी का तीर सात रंग लेता है    पर इन्ह आसूओ से  तेरे नजर के तीर जाते है  तभी इस बेरंगी दाग का चमकना कुछ रास नही आया  

कातिल

ना कोई लब्ज है ना है कोई  जब्जा पास है सिर्फ तजुर्बा कत्ल होने का  आदत हुई है कातिल की भी  पर डर है की  कातिलों के जमघट में  मेरी प्यार की नज्म ना मर जाये  नफरत के खंजर से  मेरी गज़ल का गला ना कट जाये  तुम तो हो ही  मेरा जिस्म बेदिल ना बन जाये  खुदा ईश्वर भगवान मानने वाले ये दुश्मनो   मै भी काफिर हू  आना यहा भी कभी  कत्ल करना मेरा भी  पर इन्ह हर्फ को सुनने की तमीज रखना  जिन्ह होठों से खून पिते हो कभी उन्हसे किसीके लब भी चुमना 

बारिश

राधा आ कर नाच रही है बारिश मे मेरे साथ भिग भी रही है पर आवाज तो तेरे घुंघरुओं की है तेरे घुंघरू राधा ने चुराये है या तुही आयी है राधा बनकर? बारिश की बुंदों ने पलकों के पिछे छिपाया है तेरी सुरतसा कुछ तेरी गालो की लाली उतर गयी है बुंदोंपर लेकीन बुंदोंने छुपाया है तुझे या तु आयी है बुंदो को लेकर? अभी ठंडी हवाओं का छुके जाना जैसे तेरा बाहों मे आना शजर की शाखाओं का मुस्कुराना जैसे तेरी झुलफों का लेहराना असल मे तुने बारिश लायी है बादलों से मिलकर तेरे साथ की ये बारिश ऐसे ही बरसने दे उन्ह बुंदों का अपनापन दिल की प्यास बुजाता है विरानगी मे भी

ले आना

रात मे सुरजमुखि से गम ले आना पुरब की सुबहा से सीतम ले आना अमावस की रात ढल गयी कब की चांद बनकर तू अभी पुनम ले आना अकेले मे साथ है तन्हाई का सफर खिलती कली बनकर सनम ले आना काले अब्रने नजर लगाई सुरज को तु भी कभी काजल का तम ले आना वसंत की गलियों मे पेड सुक गये वर्षा की नमी का तू जनम ले आना विवेक भटक रहा है इस अंजुमन मे मिले कही तो उससे जखम ले आना

साहिल

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उस ओर भी इक साहिल है वहा से मै कुछ और ही हू मै मेरे अंदर बसे मेरेपन को मेरे इतना जानता हू उससे भी अलग हू कौन धोखा खा रहा है? ये नजर या ओ साहिल? कुछ सवाल अनकहे तो कुछ जवाब अनसुने होते है इस रेत की तरहा बेशक इनको जुबाने होती है पर ये बाते नही करती सिर्फ ये लहरे कुछ बोल रही है मै सून नही पा रहा कुछ अपनासा है इस में मै महसूस नही कर रहा इनका शोर खामोश कर रहा है मुझे ये साजिश है या कोई इत्तेफ़ाक या है लहरों की आवरगी? अब ढुंढते ढुंढते उस ओर आ रहा हु शायद फलक तक जाना पडेगा 

याद रखना

याद रखना जलता आतप यहा का भी... यहा भी रुके थे हम सब कभी पानी रुका था कुछ पल पर उसकी बुंदे मुसलसल गुजर रही है अभी याद रखना जलता आतप यहा का भी अंधेरे से आये थे कुछ अंधे, कुछ रोशन चेहरे भी थे चमक गये कभी तो मयुस हो गये कभी याद रखना जलता आतप यहा का भी किताब के कुछ पन्ने भर गये एक पन्ना ये भी था और भी बचे है पन्ने काफी याद रखना जलता आतप यहा का भी कुछ है तोही कुछ नही है रह गया है कुछ, कुछ हो गया कुछ छुट गया कुछ आना है बाकी याद रखना जलता आतप यहा का भी बहोत सारी चिजे है इस डिब्बे में शायद मीठी होग़ी शायद कडवी चख लेना तुम भी कभी याद रखना जलता आतप यहा का भी... याद रखना जलता आतप यहा का भी

क्यु है

कोई नही है यहा लेकीन हलचल यहा ही है वहा सब है फिर ओ जहॉ सुना क्यु है? मिट्टी है बेबस रुठी है शजर बंजर जमिन है फिर भी यहा बाढ क्यु है? ना कभी देखा है खुदा ना महसूस किया है कभी लेकीन डरता हु मै भी फिर इतने फरिश्ते क्यु है? कही मिर्झा है तो कही लैला गालिब की शायरी भी है फिर इतनी नफरत क्यु है कितने मिम्बर है हर जगहा कितने बाते करते है लोग वहा मै भी सुन रहा हु फिर इतनी खामोशी क्यु है? धुऑ धुऑ हुआ है अब हर तरफ सिर्फ कब्र कब्र और कब्र कातिल ही करते है फैसला फिर इतने मुन्सिफ क्यु है

अरे टिपूसा, टिपूसा

अरे टिपूसा, टिपूसा तुझ्या नावच र गाण आज गातोय रे मी ह्या मातीच्या कुशीत अरे टिपूसा, टिपूसा अशी कशी तुझी खोड माझ्या पापणीतल थेंब आज आटून मेलय अरे टिपूसा, टिपूसा बघ जळलया रान त्याच्या दारात ह्या आज करपलया प्योर अरे टिपूसा, टिपूसा आता नको हा खेळ माझ्या मातीत आता नाव कोरुन टाक अरे टिपूसा, टिपूसा जस चांदण्याच र सोन तुझ्यासंग आज बघ नाचली ही लेकर अरे टिपूसा, टिपूसा आज बरसून जा र माझ्या मायचा पदर आज भरुन टाक अरे टिपूसा, टिपूसा कस फेडु रे पांग तुझी येण्याची हाक माझ्या मायची रे थाप अरे टिपूसा, टिपूसा अस कस भिजवून सोडलस जळती चिता आता विझवून टाक

इत्तेफाक

चुराया तुने दिल और चोर मै बना बारीश तुने लायी अब मोर मै बना खामोशीयों के किस्से सुने थे लाखो सन्नाटा तेरा था अभी शोर मै बना रात ढलते ढलते रात हो गयी यहा तुने पलके झपकी पर भोर मै बना कोसो दुर गया है वक्त भी घडी से तुने दुरी बनाई लेकीन दोर मै बना कभी यादों के पन्ने जालाती थी तू तेरी ओर सास है दुजी ओर मै बना विवेकसे बिछड के तो चली गयी तू इत्तेफाक, शादी तेरी शौहर मै बना

मिलना यहा

कल जाते जाते इस रास्ते के इसी चौराहे पर रुक जाना रुकना और थोडी देर फिर इस तस्विर को हलके से मिटाना मिलना यहा तुम मै युही दिखुंगा इस शजर से भी बाते करना कभी कभी इन्ह शाखाओं को भी छुना महसुस करना इन्हकी धडकने बिना दिल तोडे आगे जाना मिलना यहा तुम मै युही दिखुंगा आदत बनाना इस अकेलेपन की जिनके कोई नही होते अपने उन्ह दिवारों के भी होते है कुछ सपने अपने नही, उन्हके तो सपने देखना कभी मिलना यहा तुम मै युही दिखुंगा न जाने कोनसा रंग लेंगे ये ओस की बुंदे न जाने तू वही होगी जो थी कल मेरी यादों में मिलना यहा तुम मै युही दिखुंगा फिर भी कभी याद आये तो झील के पास आना फिर शांत होने दे सब कुछ पानी में देखना ढुंढ लेना मिलना यहा तुम मै युही दिखुंगा

मेरी हिर

रात की एक ख्वाईश है मेरी आंखे बंद करनी है मेरी पलकों पर लिखना है कुछ तुम सब का सुरज डुब गया जिंदा था आतप मेरा भी तेरी नजरों में तूने इंकार किया और मै तारिकी के जंगल मे खो गया अंधेरे को अब कोई सुरत दे दो इस जंगल को कोई रोशनी दे दो लेकिन अब वक़्त चला गया तुझे दूर करके रात का मक्सद पुरा हो गया अब मेरी भी आंखे मिट गयी पर यहा ना दफनाओ मुझे मेरी हिर का ये शहर नही तेरा शहर ढुंढ रहे है लोग अभी...

कहाणी

ना ये साजिश है ना ये है इत्तेफाक ये तो बस एक कहाणी है किसीने तो बनायी हुयी इस में राम भी है, सीता भी लैला भी और मजनू भी मिर्झा भी है और साहिबां भी अब पुर्णिमा का चांद अमावस की तरफ जा रहा है इस कहाणी का अंत आया है कहाणी? दास्तान है ये अभी हिर का रांझा ये कौनसा अमृत गया? हिर के बाहों में अब खामोश हो गया कलम की स्याही सुक क्यु नही गयी अंत में अंधरा ही क्यु है यहा दिन के बाद कौन है यहा मुन्सिफ? काली मसि का ये धब्बा जायेगा कब? अब लोग प्यार करना ही भुल गये.. लोग समझदार बन गये.. लोग आज कल काला कुर्ता पहनते है..

तुम

तुम मोहब्बत बन जाना मिर्झा-साहिबां की मै खाली दिल बन जाऊंगा फिर बसना इस मुरजे दिल मे बंजर जमीन को नई पेहचान देना तुम अंकुर बन जाना पुराने किले पर मै बेहता किरन बन जाऊंगा तुम युही खिलती रहना कली की तरहा मै युही तुम्हारी झुलफे लहराता फिरुंगा तुम मिठ्ठी बन जाना खेतों की मै बारिश का बुंद बन जाऊंगा फिर मै गिरुंगा आवरगी से तुम पहली बारिश की खुशबू देना तुम चांद बन जाना पूर्णिमा का मै सुनी रात बन जाऊंगा फिर मै बनुंगा बेबस माथा तुम चमकता तिलक बन जाना

तू

रबसा तू बहता जाल बनना मुझसा तू बिछडा काल बनना तुझमें ही मेरा साहिल बस गया लहरों से भी अचल चाल बनना रुठी बातूनी कोयल आज हस जा तू मेरा अनसुना ताल बनना अभी ना दे खोयी आजान ये खुदा फुल का अब खोया लाल बनना भिगी अब पलके यादों के गितोमें तू भी प्यार की रोशन ढाल बनना लेट जा इस कब्र में विवेक अब तू अब्रसी तेज अब शाल बनना

तेरेबिना

दिवानगी पर पागलपन की गोली किसी काम की नही इस नशेली जिस्म पर दवा जहरीली किसी काम की नही तेरी पलकों से जिंदगी ढुंढ लुंगा कही से भी तेरेबिना जन्नत की ये गली किसी काम की नही तेरे हसी मे रेगिस्थान भी भुलेगा सुनापन तेरी खुशबू नही ओ कली किसी काम की नही तुने छुआ तो जुगनू भी चमक गया अपनेआप तेरी रौनक नही ओ लाली किसी काम की नही तुने कदम रखा तो रेत भी मिट्टी बन गयी तेरा रंग नही ओ हरयाली किसी काम की नही तुने देखा और बिना बादल मे मेघधनुष बन गया तेरी नजर नही ओ सहेली किसी काम की नही तेरा साथी बन गया है मेरा विवेक बिनासबुत के तु नही ओ सजी डोली किसी काम की नही

तुम

थंडे दिल मे आग लगाना कोई तुम से सिखे यतिम बने रुह को अपनाना कोई तुम से सिखे झिल का पानी मिल रहा है सागर को धिरे धिरे अंजान बनकर पहेचान बनाना कोई तुम से सिखे काटें भी चुभते नही आज कल इस रेगिस्थान मे गुलाब दे कर दिल खरोचना कोई तुम से सिखे आसमां भी मिलाता है सुरज को चांद से इकरार करके दुरी बढाना कोई तुम से सिखे इस इन्तेहा की हद तो देखो वक्त रुक गया हसते हसते आसु बन जाना कोई तुम से सिखे लब और लब्ज मे ये कोनसी दूरी है? नजर झुकाए नयी शायरी हो जाना कोई तुम से सिखे गाते गाते मर गया है विवेक अभी खुशी से गले लगाकर कत्ल करना कोई तुम से सिखे

अच्छी नही

कोई अंजाना आये और रुलाये ऐसी खामोशी अच्छी नही बेवजहा कोई हसाये यहा ऐसी बेफिक्री अच्छी नही कुछ लोग जलाते है मंजिल हर एक की यहा भी चिंगारी जल जाये ऐसी बेपरवाई अच्छी नही काले बादल कहा से क्यु आये यहा अचानक बंद पलकों से बारिश आये ऐसी विरानगी अच्छी नही एक भी पंछी नही है इस हरे पेड पे घर से दुर जाये ऐसी रुसवाई अच्छी नही दुर दुर तक कोई नही है इस रास्ते पर मिट्टी भी पत्थर बन जाये ऐसी तन्हाई अच्छी नही सदियों से उठा रहा हु विवेक को मै अपनी सोच ही खो जाये ऐसी आवारगी अच्छी नही

कोशिश

आदमी एक अपनासा ढुंढने की कोशिश है खुशबू भिगी मिट्टी की सुंगने की कोशिश है आतिश-जनों का प्रयास था मुझे भी जलाने का अब खोयी हुयी थंडी हवा को खोजने की कोशिश है ये कोनसी घडी है जहा प्यार मे भी है बेबसी ‘किसी’ तस्विर को आवाज लगाने की कोशिश है कैसे रुठेगा ये दिल किसी से इस वक्त? इस दिल की मरम्मत करने की कोशिश है कोई तो भुल गया है यहा शहद प्यारभरा भुले हुये उसको को तलाशने की कोशिश है धिरे धिरे यहा मर रहा था अंदर का ‘विवेक’ अभी सतरंगी हर्फ की तरहा जीने की कोशिश है

शिवजयंती

माझा राजा हरला, होय माझा अजिक्य राजा हरला.. त्याला हरवल तुम्ही, मी सर्वांनी... परवा बाबासाहेबांना हरवल.. आज शिवाजी महाराजांना.. ‘मावळ्यांची’ ही कामगिरी पाहुन महाराजांना काय वाटत असेल ह्याचा विचार न केलेलाच बरा... तुम्ही म्हणाल काय झाल मला अचानक?? आता रहावेना ओ... खरच हा आपला समाज हा असा समुदाय आहे ज्याला सवय आहे लाचारीची.. जमिनदाराची लाचारी, जमिनदार नसेल तर सत्ताधार्‍यांची आणि ते नसतील तर महापुरुषांच्या पुतळ्यांची, प्रतिमांची लाचारी... आणि हो त्या लाचारीत स्वाभिमानही असतो बर का.. आणि मग तो स्वाभिमान जयंती, पुण्यतिथी मधून दिसतो. शाळेत एकदा एकाने प्रश्न विचारला होता की आपण जयंती का साजरी करतो? तर शिक्षक म्हणाले की व्यक्तीच्या विचारांचा प्रसार व्हावा म्हणून आपण जयंती साजरी करतो... पण परवाची शिवजयंती बघितली आणि जयंती ह्या संकल्पनेवरचा विश्वासच उडला... शिवजयंती.. शिवजयंती हा चिंतनदिन आहे.. आत्मचिंतनाचा, सामाजिकचिंतनाचा... चिंतना त्या जानत्या राजाच, त्याच्या धोरणांच, विचारांच... पण नाही.. ही शिवजयंती अशी काही साजरी करण्यात आली की शिवाजी महाराजांचा जन्म शिवनेरी झाला नसुन इंग्लंडच्या राजघराण्

सैराट..

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झिंगाटगिरी करुन थकलेली, याड लागलेली ती दोघ लाल आकाशाखाली निपचित पडलेली ती दोघ हातात हात घेतलेली, मोरपंखाच्या छायेत लपलेली ती दोघ ह्या 'महान समाजाला' छोटस भोक पाडणारी ती दोघ त्यांची ही शांतता अजुन नागव करतेय त्या 'महान समाजाला' अन् आम्ही.. आम्ही एकच काम करतोय 'ठिगळ' लावण्याच आणि 'महान समाजाचा' विदृप देह लपवण्याच... 'ठिगळ' लावून लावून 'महान समाजाची' कापड 'नको नको' तिथ जिर्ण झालीत इतकी की 'महान समाजही' वेडीवाकडी हालचाल करतोय नागवपण लपवण्यासाठी हालचाल करून करून दुर्गंध येतोय घामाचा आता आम्ही होतोय अस्वस्थ पण ती दोघ शांत, निपचित आता पडु देत त्यांना शांत खुपदा बघितली 'महान समाजाची' आव आणलेली 'शांतता' आता त्या दोघांचीही 'शांतता' अनुभवावी म्हणतोय... त्यांच्या शांत स्पंदनातुन बाहेर आलेला 'सैराट' श्वास आत घुसला सरळ त्यान इतक पोखरलय की बेचैन वाटतय आता तरीही जिवंत आहे त्यांच्यातला 'सैराट' म्हणूनच पडु देत त्यांना शांत निपचित काहीस शांत सुस्थ असाव ह्या अस्वस्थ बेचैन जागेत

साम्यवाद!! भारतीय साम्यवाद...

मला खुप लोक मोजकेच पण एकसारखे सामान प्रश्न विचारतात. पहिला तो असा की तुम्ही साम्यावादी इतके बुरसटलेले बंदिस्त आणि विचाराबाबतीत संकुचित म्हणजेच न बदलणारे का असता? त्याच उत्तर अस आहे की खर तर एका विशिष्ट विचाराने बांधुन घेण कोणालाच आवडत नाही, मलाही नाही आवडत. जर विचारवादी म्हणजे एका विशिष्ट विचाराला थांबवुन स्थिर रहाणारा असा असेल तर मग मी साम्यवादी नाही. मग अश्या व्याख्येने लेनिन,फिडेल, जॉग-इल, ज्योति बसु हे कोणीच साम्यवादी नाहीत. कारण ते कधीच विचाराला चिटकून नाही राहिले. त्यांनी त्यांच्यापरीने ह्या विचाराला नवा आकार देण्याचा प्रयत्न केला आणि कार्ल मार्क्सच म्हणला होता की, "हुश्श्श मी मार्क्सवादी नाही!" तो खुणवतोय सर्वांनाच की हा विचारप्रवाह थांबवुन देवु नका.. प्रवाहित ठेवा कारण हा इतर विचारप्रवाहासारखा फक्त राजकीय किंवा सामजिक विचार नाही तर तो 'वैज्ञानिक विचार' आहे.. आणि विज्ञान हे नेहमी प्रवाही असत. म्हणुन साम्यवादी म्हणजे साम्यवादाला प्रवाही ठेवणारा एक विचारवंत, कार्यकर्ता (काहीही म्हणा), पण 'साम्यवादाचा गुलाम' नव्हे... ह्या व्याख्येने मी पण साम्यवादी आहे..

आदत

यहा अब अंधेरे से भी दोस्ती हो गयी  बंद दिवारों में उसकी छाव हमसफ़र बन गयी  मत खोलो दरवाजे खिडकीया  रोशनी ने मेरे तलाक को मंजुरी दे दी  कुछ दिनो पहले एक प्रेम कहाणी बंद थी शायद चित्रकार होगा प्रेमी  मैने जोडे कुछ लब्ज उस रेखां के साथ  तो देख ये तो अपनी दास्तान बन गयी  तूने कहा था एक दिन दुल्हन बने गी  तेरे रुख्सार पर खिला तिल है निशानी  सच तो ये है, मै जिंदा हु तू भी है,  झुटे है ओ लोग जो कहते है यहा से तू रुखसत हो गयी  बारिश में कितने गाने गाये थे हमने  अब यहा देख बारीश ही है आसुओ की  गाना गाने आयेगी? छोड, अब तो अकेले में गाने की आदत बन गई 

पावित्र्य

मी आत्ताच एक लेख वाचाला. आणि मी पार हादरूनच गेलो. मग म्हणल अभ्यासाला थोडासा विराम द्यावा आणि काही तरी लिहाव. सहसा मी सगळ्या संघटनांच्या, पक्षांच्या वेबसाईट नियमित वाचतो. कारण पुढील व्यक्ती काय लिहितोय, का लिहितोय आणि आपल काय मत आहे? ह्यासाठी ते महत्वाच असत. तर सनातन प्रभात च्या साईट वर एक लेख आहे, 'शनिशिंगणापूर येथे शनिदेवाच्या चौथर्‍यावर महिलांना प्रवेश हवाच, अशी धर्मद्रोही मागणी करणार्‍यांना दिलेले समर्पक उत्तर !' ह्या नावाचा. तर ह्यात लेखकाने अश्या काही गोष्टीं मांडल्या आहेत की त्यावर नुसती नापंसंतीच नाही तर विरोध दाखवायला हवा. लेखक एका ठिकाणी म्हणतो की मंदिराच्या गाभाराच पावित्र प्रत्येकाने राखायालाच हव. मग तो पुरुष असो वा महिला. पुढे म्हणतो दारू पिऊन आले पुरुष हाही मंदिरात प्रवेश करू शकत नाही कारण त्याने मंदिर अपवित्र होते. म्हणजे हा लेखक महिलेची तुलाना दारू पिऊन आलेल्या महिलेशी करतोय. मासिक पाळी येण हे दारू पिण्यासारख आहे अस त्याच मत… मित्रांनो हा खूपच घातक विचार आहे. आणि हा कुठून आला, मनुस्मृतीतून आला का आणि कुठून हे ह्या घडीला महत्वाच नाही आहे. महत्वाच हे आहे की हा अज

इंतजार....

चिरती हुई खामोशी से दूर नये गाणे का इंतजार है  एक चेहरे की तलाश में अब चिखने का इंतजार है  अजनबी राहों में बिखराया था दिल अंजान साये के लिये  उस साये का दिल के साथ आने का इंतजार है  कभी तो मिल जायेगी कलम गुलाबी लबों की  उससे लिखे हर लब्ज में खोने का इंतजार है  उसने भुली है  चुनरी, चुडिया और बिंदिया यहा  यहा पत्थर बने मुझे उसके मिलने का इंतजार है  अनदेखा वादा किया था एक तस्वीर से  ओ निभाने के लिये अंधे होने का इंतजार है  मतलबी विवेक पुछता है की तू परेशान क्यू है? उसे क्या पता मुझे तो उससे बिछडने का इंतजार है 

आजादी

मै एक सर्वसाधारण विद्यार्थी हु। मुझे इस पर बोलने का कितना अधिकार है मै खुद नही जानता पर आज मेरी खामोशी भी चिल्ला रही है। तो सोचा आज लिखही दु कुछ। मै साम्यवाद, मार्क्सवाद से भलेही प्रभावित हु फिर भी भाजपा और संघ को हमेशा विरोध करनेवाला अंधा युवा नही हु। दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र देश का जो सबसे बडा हिस्सा है ओ किसान आज मर रहा है.. उसी लोकतंत्र में आजभी महिला उनके अधिकार के लिए लढ रही है। और ये लोकतंत्र जिसके कंधोपर खडा है ओ युवा भी आज झगड रहा है, मर रहा है, मारा जा रहा है। तो फिर ये कहा का लोकतंत्र देश है, जिस में सब लोग अपने अधिकारों के लिए लढ रहे है, लढने की आजदी के लिए लढ रहे है? आज तो मजदुर साल का पचास हजार कमा रहा हो ओ अपने बच्चे के शिक्षा के लिए कहॉ से लाख रुपए लायेगा? क्या ओ इतनासा भी सपना देख नही सकता? मुझे सन्मानपुर्वक जीने की आजदी चाहिये। मुझे चाहिये जुल्म के खिलाफ लढने की आजादी। मै भी देशप्रेमी हु। मुझे ना इस देश से आजादी चाहिये ना इस देश का बटवारा करने की आजादी चाहिये.. मुझे तो बस देशवासीओं के सन्मानपुर्वक जीने की आजादी चाहिये। मै मांग रहा हु आजादी उस किसान के उज्वल भवि

स्वातंत्र

मी एक सर्वसामान्य विद्यार्थी.. खर तर मी खाजगी महाविद्यालयात शिकत आहे. त्यामुळे मला किती अधिकार आहे, ह्यावर बोलण्याचा हे मला खरच माहित नाही.. पण काल जे झाल त्यानंतर मात्र मी मौन सोडण्याच ठरवल. का‍रण त्या मौनालाही आता छिद्र पडुन ओरडावस वाटतय. मी साम्यवाद मार्क्सवादाने जरी प्रभावित झालो असलो तरी मी नेहमी भाजपा आणि संघाला विरोध करणारा अंधाळा युवा नाही. जगातल्या सगळ्यात मोठ्ठ्या लोकशाहीचा सगळ्यात मोठ्ठा घटक असलेला शेतकरी आज मरत आहे. त्याच लोकशाहीत महिला आजही सनातनी जुनाट विचारांविरुद्ध संघर्ष करत आहेत. आणि आता त्याच लोकशाहीचा आधारस्तंभ युवा विद्यार्थी लढत आहे मारला जात आहे अन् मरतही आहेत.. मग ही कसली लोकशाही? आता तर त्याच लोकशाहीत त्या आधारस्तंभाचा आवाज दाबला जातोय.. आता अन्यायाविरुद्ध बोलायचही स्वातंत्र नाही का? का आता जगण्याचीपण भिक मागावी लागेल? ह्या लोकशाही महिना पाच-सहा हजार रुपये कमवणार्‍या कामगाराच्या मुलाला उच्चशिक्षणाला वर्षाला लाख-लाख रुपये देण कस परवडेल? का त्या कामगाराला मुलगा उच्चशिक्षीत करण्याच स्वप्न बघण्याच स्वातंत्र नाही का? मला सन्मानान जगण्याच स्वातंत्र हवय.. मला हवय

कमी है

रात बहोत लंबी है  इतनी की रोशनी का मतलब भूल गये ये फुल, पंछी, पत्ते, वादिया तूने मिटायी तेरी यादों की कमी है  निशाचर बनते फिरते है बुजे हुये दीपस्तंभ मै चलता हु उनके सहारे गाणे गाते है हम दोनो खामोशी के  तूने चुराये तेरी बातों की कमी है  मेरी नजर के सामने है सिर्फ अंधेरा  तन्हाई चमक रही है उसके साथ  ना कोई तमन्ना है ना कोई ख्वाइश तूने छिनी तेरी तस्विर की कमी है  दिख नही रहा कुछ सूखी है कलम की स्याही भी  इतनी गहरी अमावास कभी न थी तूने छुपाई तेरी खुबसुरती की कमी है फिर भी दिल कहता है की  रात जा ने को है, उजाला हो ने को है  मे तो पूरब में आया हु  तूने ठुकराये तेरी हा की कमी है     

आबा, खरच धन्यवाद

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काही गोष्टी ह्या स्मृती-विस्मृती च्या पलीकडच्या असतात… मग त्या आवडीच्या असोत-नसोत, तुम्ही त्या गोष्टी बरोबर सहमत असोत वा नसोत, त्यांच्या नसण्यान तुमच्या अपेक्षा, तुमची स्वप्न ही क्षणार्थात माती मोल वाटतात. असच काहीस झालय. आबा अहो बघता बघता एक वर्ष झाल. तुम्ही दिसलाच नाहीत. खूप शोधल आबा तुम्हाला. पार मंत्रालयापासून ते विधानभवनापर्यंत. शेवटी तासगाव ला गेलो तेव्हा हिरव्यागार द्राक्ष बागात दिसलात तुम्ही. म्हैसाळ, टेंभू, ताकारी, आरफळच्या पाण्यात, तंटामुक्ती मुळे शांत झालेल्या गावच्या मातीत भेटलात. बोलण तेवढ राहून गेल बघा. तस जास्त काही नाही, फक्त आभार मानायचे होते, ह्या सगळ्या गोंधळात तुम्ही फक्त टीकाच ऐकल्याअसतील पण आज खरच आभार मानायचं. कधी कधी कस होत ना आबा वेळ खूपच लवकर निघून जातो, मग आम्हाला वाटत की आपण खूपच मागे राहिलोय, मग आम्ही प्रयत्न न करता नुसत कोसत बसतो नशिबाला, पण तुम्ही वेळेलाच मग टाकल, अगदी सर्व बाबतीत...कधी तुम्ही काळाबरोबरची शर्यत जिंकलात आणि काळाआड गुडूप झालात कळलच नाही.    पण तुमच अस्तित्व अजून जाणवतय जागोजागी. आणि ती जाणीवच नवीन उत्साह आणत आहे. त्याच्यातूनच निर्माण

राष्ट्र आणि राष्ट्र-व्यवस्था

जवाहरलाल नेहरू विद्यापीठात जे काही चाललय, ह्या वरून  आपण इतकाच निष्कर्ष काढू शकतो की भारतातील कोणत्याही सार्वजनिक विद्यापीठात विद्यार्थांचे हक्क, विद्यार्थांचा संघर्ष ह्यांना राजकीय रंग लागलेला आहे. पण ते FTII असो University of Hyderabad असो किंवा IIT Madras, हा रंग उठून दिसतोय. अभाविप, नॅशनल स्टुडंट युनियन ऑफ इंडिया, ऑल इंडिया स्टुडंट असोशियेशन आणि इतर डाव्या आणि उजव्या विचारसरणीच्या विद्यार्थी संघटना ह्या केवळ प्रस्थापित पुढार्‍यांच भावी भांडवल बनून राहिल्यात. संघटना असाव्यात. कारण ऐकीतूनच विचारांची देवाण-घेवाण होते, हक्काची जाणीव होते. पण देवाण-घेवाणी ला मुळात विचार असावे लागतात. आणि ह्याचाच आज अभाव दिसतोय. कन्हैया कुमार नावाचा विद्यार्थ्याने आणि त्याच्या संघटनेच्या विध्यार्थांनी देशविरोधी घोषणा दिल्या. (मी हे सगळ बातमी बघून लिहितोय, मला खरच माहिती नाही की कोणी दिल्या, पण दिल्या हे मात्र नक्की). मला ह्या बरोबर अजून काही गोष्टी जोडाव्याश्या वाटतात. परवा इशरत जहान बाबतीत डेविडच न्यायालयातील स्पष्टीकरण आल. आता खर काय खोट काय हे कधी आपल्यासारख्या सामान्य माणसांना कळवण्यात येत का? असो

इस वक्त....

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अंधेरे मे यु ही अकेले चलने का मन नही कर रहा  तेरी याद को खामोश करने का मन नही कर रहा  सिसकी भर के टूटी दिवारों ने पुछा उदासी का सबब  मैने कहा अब खिडकी खोलने का मन नही कर रहा  तेरे कंगन का नुकीला टुकडा अटका है सीने मे   तेरी आखरी निशानी मिटाने का मन नही कर रहा  हर दिन चलती है छुपी खोज दिमाग मे दिवानगी पर  धडकते दिल से तेरा नाम लेने का मन नही कर रहा    तेरे आंगन मे दफनाया मेरा प्यार जिंदा है अभीभी  इस वक्त उसका कत्ल करने का मन नही कर रहा  यहां खुदा भी मिलता है भीख मे  तू क्या चीज है   पर खोये हुए विवेक को ढूंडने का मन नही कर रहा

जमाना

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गुलाब से इश्क बरसने का जमाना नही रहा आवारगी मे काटों के पिघलने का जमाना नही रहा तेरा तितली की तरहा उडणा एक जश्न है जश्न मे शहद के खिलने का जमाना नही रहा जुगनू रोशन था साये की तलाश मे खो गया शमा की मानिंद रुह बरसने का जमाना नही रहा तू ही है मुक्कमल मकाम हर एक ख्वाब का ओस को सुबह मिलने का जमाना नही रहा एक जमाना ऐसा भी था जहा प्यार को मिलता था खत प्यार का अब कलम से मोहब्बत की दास्तान लिखने का जमाना नही रहा कौन करेगा वकालत बेहाल विवेक की इस दौड मे पर मुन्सिफ़ के सामने रुकने का जमाना नही रहा

कोई नही

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तेरे सोहबत मे आंखों से ज्यादा बिमार और कोई नही तेरे लिये मेरे दिल से दृढ खुद्दार और कोई नही ये कल्ब भी गिन गया आसमान के तारे तेरी अदाओं इतना बेशुमार और कोई नही कदर करता था बहुत इस जिस्म की तेरे लबों से बडा गद्दार और कोई नही मै दूर हु बहुत खुद से, जितनी तू है मुजसे तन्हाई जैसा मेहफूस यार और कोई नही रात मे पानी का रंग काला तो रोशनी बने अंधेरा तेरे साथ विरानगी जैसी बुरी हार और कोई नही अपने बनकर अपने नही होते कुछ लोग जो अपनेपन मे फसे है मैने खोया है विवेक अभी, इससे विशाल प्यार और कोई नही

नशा

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गिली आंखों से प्यार ढुंढना नशा है भरे बाजार में तुझे देखना नशा है ख्वाब भी मिटते है वक्त की लहरों में तेरी याद में बेहता ख्वाब बनना नशा है तस्वीरों का सैलाब गुजरता है खुली पलकों से विरानगी में नशेली निंद को सुलाना नशा है दर्द को बेनक़ाब कर रहे माजी के टुकडे बेनाम दर्द पर तेरा नाम लिखना नशा है मेरी फ़ितरत मे है खामोशी के अनगिनत नगमे प्यार का लब्जो में इजहार करना नशा है यहा आबाद नही है खुशबू खिलते फुल में तेरी अश्कों में मेरा बेखौफ मिटना नशा है तारीकी-ए-शब का जवाब नही विवेक के पास जुगनू बनकर तेरी राह मे खोना नशा है

तुम कहा हो?

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कब्र में मै जीर्ण तुम कहा हो? जख्म में है खुन तुम कहा हो? दश्त मे खोया प्यार खोयी जिंदगी दिल में सास सुन्न तुम कहा हो? तन्हाई का किनारा मै कश्ती टूटी किनारा मौत का जश्न तुम कहा हो? आसमान को छुता गम का पहाड आसमान निला खुद हैरान तुम कहा हो? रोशनी का खंजर अंधेरे का वार बेबस रात बुजदील दिन तुम कहा हो? सफेद तुम्हारी ओढणी मेरा गुलाबी कफ़न बिस्मिल 'विवेक' का मौन तुम कहा हो?

गीत

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तेरी आखो को एक गीत मिल गया मेरी रुह को खोया मेघ मिल गया मेंने समजा गम के गुजरने का मतलब तेरे  चेहरे पर  नया नूर खिल गया मैने ढुंढा दिल के कातिल का पता  तेरे होठों का तन्हा सहारा मिल गया अंधी रात को मिला अंजान साया खिलता हिज्र तेरी पलकों पर मिट गया आसूओं ने बताया रुकने का सबब मतलबी दर्द तेरे बाहो में लिपट गया चांद ने कहा सुरज हार गया मैं ने कहा हारा विवेक जीत गया   

अर्ज

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देख ये सृष्टी खिल गयी इस सजल खुबसुरती के अक्स  से फिर भी तू बेखबर… यही एहसास है तेरा इन्ह लब्जो के एहसास पे शायद सुबह की पहली किरण आशियाना ढुंढते हुये थम जाती होगी तेरी सुरत पर मै कोई आसमानी नही हु जो आफ्ताब की निगरानी करता फिरू मै  तो आशिक, आदमखोर को भी सिकता हु महोब्बत … अब कल्ब का मलबा हुआ है बादलों का पता नही पर एक खयाल है  इन्ह प्यासी आखों मे जिसके कारन ये आब-ए-तल्ख रुख गया है तेरी तस्वीर ने तो पुरा कालचक्र बदल दिया कल तक आजाद था अब बंदी बन गया पर इस खुदगर्ज, पापी, बेशर्म, बुझदिल दुनिया का उन्मुक्त होने से ज्यादा तेरी तस्वीर का उन्मिष बंदी बनना चाहता हु ।