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डिसेंबर, २०१६ पासूनच्या पोेस्ट दाखवत आहे

दिवार

हमे आशियाना चाहिये था.. तुने दिवार बनाई.. जब से ये दिवार बनी है ना चांद उतरा है आसमान मे ना सुरज दिवार के उस तरफ है तु और इस तरफ है बस अंधेरा वक्त के साथ इतनी मजबुत हो रही है ये दिवार की अब यादों को खामोशी की और ख्वाबों को बंद आखों की आदत हो रही है इस हवा मे एक घृणा है दिया जलाने जाता हु और आग लग जाती है दिवार ने भी ये कैसा बैर लिया है मै लिखने जाता हु मोहब्बत और मलबा गिर जाता है सोचता हु गिरते मलबे के साथ गिर जाये ये दिवार भी दिवार तो गिर जायेगी पर तेरी नफरत का क्या? बेहतर यही है की इस दिवार से ही मोहब्बत की जाये.. मोहब्बत से नफरत करने से अच्छा है नफरत से मोहब्बत की जाये..

रात..

रात हो रही है दिया जल रहा है डर उस रात का नही.. डर इस बात का है की सुबह से पहले दिया न बुझ जाये धडकने तेज हो रही है बढते अंधेरे मे चार दिवारों मे बंद मै और मेरा साया गुफ्तगू करते करते थक गये अब देख रहा हु खिडकी के बाहर यहा एक शजर थी फुल खिला था कल.. आज क्यु मुरझा गयी? शायद फुल तोडा होगा किसीने दिल टुटने का गम दिवारों के अंदर भी है और बाहर भी हवा के लहरों का नशा आखोंपर चढ रहा है पलके अब मिट रही है दिया अभीभी जल रहा है चार दिवारों मे हर रात नयी कहानी जन्म लेती है मै पढता हु मेरा साया सुनता है जब तक दिया जल रहा है, मै कहानी पढाता रहता हु साया सुनता रहता है जब दिया बुजता है साया खो जाता है कही अंधेरे मे और मै सो जाता हु किसी कहाणी मे

बा. सी. मर्ढेकरांच्या जन्मदिनानिमित्त..

सकाळी सकाळी। उघडावे वृत्तपत्र, पहावे राशीचक्र। ‘श्रद्धेपोटी’॥ कालची ‘चपटी’। करावी ‘उलटी’, सुगंधी अत्तर। माळावा देही॥ घरातून आज। लवकर निघावे, नजर लावावी। तिच्या दारी॥ बाहेरूनच करावे। इशारे गुलाबी, तिच्या घरी म्हणे। कुत्री असती॥ इतक्यात यावा। गोजिरा कोणी, ध्यानी ना मनी। तिस मारावी मिठ्ठी॥ चुरचुर आवाज। यावा कानी, प्रेमाच्या काचा। फुटाव्या ह्रदयी॥ काळाची कृपा। काय सांगावी, व्हावा अंधार। सुर्याखाली॥ होता सायंकाळ। गाठावी गल्ली, पुन्हा तीच 'चपटी'। तीच 'उधारी'॥ आता नवा अंधार। रात्र कालची॥ करावी नशा जुनीच। ‘अंध:श्रद्धेपोटी’॥