पोस्ट्स

मार्च, २०१६ पासूनच्या पोेस्ट दाखवत आहे

इंतजार....

चिरती हुई खामोशी से दूर नये गाणे का इंतजार है  एक चेहरे की तलाश में अब चिखने का इंतजार है  अजनबी राहों में बिखराया था दिल अंजान साये के लिये  उस साये का दिल के साथ आने का इंतजार है  कभी तो मिल जायेगी कलम गुलाबी लबों की  उससे लिखे हर लब्ज में खोने का इंतजार है  उसने भुली है  चुनरी, चुडिया और बिंदिया यहा  यहा पत्थर बने मुझे उसके मिलने का इंतजार है  अनदेखा वादा किया था एक तस्वीर से  ओ निभाने के लिये अंधे होने का इंतजार है  मतलबी विवेक पुछता है की तू परेशान क्यू है? उसे क्या पता मुझे तो उससे बिछडने का इंतजार है 

आजादी

मै एक सर्वसाधारण विद्यार्थी हु। मुझे इस पर बोलने का कितना अधिकार है मै खुद नही जानता पर आज मेरी खामोशी भी चिल्ला रही है। तो सोचा आज लिखही दु कुछ। मै साम्यवाद, मार्क्सवाद से भलेही प्रभावित हु फिर भी भाजपा और संघ को हमेशा विरोध करनेवाला अंधा युवा नही हु। दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र देश का जो सबसे बडा हिस्सा है ओ किसान आज मर रहा है.. उसी लोकतंत्र में आजभी महिला उनके अधिकार के लिए लढ रही है। और ये लोकतंत्र जिसके कंधोपर खडा है ओ युवा भी आज झगड रहा है, मर रहा है, मारा जा रहा है। तो फिर ये कहा का लोकतंत्र देश है, जिस में सब लोग अपने अधिकारों के लिए लढ रहे है, लढने की आजदी के लिए लढ रहे है? आज तो मजदुर साल का पचास हजार कमा रहा हो ओ अपने बच्चे के शिक्षा के लिए कहॉ से लाख रुपए लायेगा? क्या ओ इतनासा भी सपना देख नही सकता? मुझे सन्मानपुर्वक जीने की आजदी चाहिये। मुझे चाहिये जुल्म के खिलाफ लढने की आजादी। मै भी देशप्रेमी हु। मुझे ना इस देश से आजादी चाहिये ना इस देश का बटवारा करने की आजादी चाहिये.. मुझे तो बस देशवासीओं के सन्मानपुर्वक जीने की आजादी चाहिये। मै मांग रहा हु आजादी उस किसान के उज्वल भवि

स्वातंत्र

मी एक सर्वसामान्य विद्यार्थी.. खर तर मी खाजगी महाविद्यालयात शिकत आहे. त्यामुळे मला किती अधिकार आहे, ह्यावर बोलण्याचा हे मला खरच माहित नाही.. पण काल जे झाल त्यानंतर मात्र मी मौन सोडण्याच ठरवल. का‍रण त्या मौनालाही आता छिद्र पडुन ओरडावस वाटतय. मी साम्यवाद मार्क्सवादाने जरी प्रभावित झालो असलो तरी मी नेहमी भाजपा आणि संघाला विरोध करणारा अंधाळा युवा नाही. जगातल्या सगळ्यात मोठ्ठ्या लोकशाहीचा सगळ्यात मोठ्ठा घटक असलेला शेतकरी आज मरत आहे. त्याच लोकशाहीत महिला आजही सनातनी जुनाट विचारांविरुद्ध संघर्ष करत आहेत. आणि आता त्याच लोकशाहीचा आधारस्तंभ युवा विद्यार्थी लढत आहे मारला जात आहे अन् मरतही आहेत.. मग ही कसली लोकशाही? आता तर त्याच लोकशाहीत त्या आधारस्तंभाचा आवाज दाबला जातोय.. आता अन्यायाविरुद्ध बोलायचही स्वातंत्र नाही का? का आता जगण्याचीपण भिक मागावी लागेल? ह्या लोकशाही महिना पाच-सहा हजार रुपये कमवणार्‍या कामगाराच्या मुलाला उच्चशिक्षणाला वर्षाला लाख-लाख रुपये देण कस परवडेल? का त्या कामगाराला मुलगा उच्चशिक्षीत करण्याच स्वप्न बघण्याच स्वातंत्र नाही का? मला सन्मानान जगण्याच स्वातंत्र हवय.. मला हवय

कमी है

रात बहोत लंबी है  इतनी की रोशनी का मतलब भूल गये ये फुल, पंछी, पत्ते, वादिया तूने मिटायी तेरी यादों की कमी है  निशाचर बनते फिरते है बुजे हुये दीपस्तंभ मै चलता हु उनके सहारे गाणे गाते है हम दोनो खामोशी के  तूने चुराये तेरी बातों की कमी है  मेरी नजर के सामने है सिर्फ अंधेरा  तन्हाई चमक रही है उसके साथ  ना कोई तमन्ना है ना कोई ख्वाइश तूने छिनी तेरी तस्विर की कमी है  दिख नही रहा कुछ सूखी है कलम की स्याही भी  इतनी गहरी अमावास कभी न थी तूने छुपाई तेरी खुबसुरती की कमी है फिर भी दिल कहता है की  रात जा ने को है, उजाला हो ने को है  मे तो पूरब में आया हु  तूने ठुकराये तेरी हा की कमी है