Unknown...

दुर रहकर भी
ऑखो मे बस जाता है
उसका चेहरा
आसमान बन जाता है

ओ बाते
बिना सोचे समझे करती है
उसे क्या पता ‘ये’ सासे
‘उन्ह’ बातोंपर चलती है

ओ ढूंढ रही है
मृगतृष्णा रेगिस्तान मे
और यहा मेरी आखे
दरीया बन जाती है

दिया जलाने का
बहुत शौक था मगर
उसका साथ हो तो
यहा रात दिखती नही है

अब ओ नही है यहा
मिट्टी बार बार बता रही है
फिर भी न जाने क्यु
हवा खाक छान रही है

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